प्रश्नः 'व्यंग्यकार' होने के क्या अर्थ हैं?
उत्तरः वही अर्थ जो कॉलोनी में एक 'सफाईकर्मी' व शहर में 'म्यूनिसिपलिटी' के होने से है। शहर में 'सफाईकर्मी' का महत्त्व किसी 'मजिस्ट्रेट' से कम नहीं होता। इसी के चलते आज साहित्य में व्यंग्यकार के पास वो पावर है, जो इण्डियन पैनल कोड में पुलिस के पास है। शहर में पुलिस व समाज में व्यंग्यकार दोनों अपने ढंग से 'लॉ एण्ड ऑर्डर' मेंटेन करते हैं।
प्रश्नः क्या व्यंग्य से हास्य को दूर रखा जा सकता है?
उत्तरः क्या आप शिव से शक्ति को अलग कर सकते हैं? क्या आप प्रकृति से पुरुष को अलग कर सकते हैं और क्या आप आत्मा को शरीर को दूर या अलग कर सकते हैं? यदि नहीं, तो व्यंग्य को हास्य से कभी दूर नहीं कर सकते। व्यंग्य अगर 'शिव' है तो हास्य उसकी 'शक्ति' है।
प्रश्नः आज व्यंग्य का विषय राजनीति व पुलिस होता है, क्या व्यंग्य के विषय समाप्त हो गए हैं?
उत्तरः ऐसा नहीं है। लेकिन यह सच है, व्यंग्यकार की सार्थकता वही होती है, जब वह युग की विसंगतियों को गहराई से खोजता है और उस पर प्रहार करता है। लेकिन आज कोई गहराई में उतरना नहीं चाहता, डूबने का खतरा मोल लेना नहीं चाहता। हम तैराक तो हैं, लेकिन स्वीमिंग पूल के, जहां डूबने के खतरे नहीं हैं। नेता, राजनीति व पुलिस व्यंग्य का कच्चा माल हैं।
प्रश्नः काव्य मंच पर आज हास्य व्यंग्य की क्या स्थिति है?
उत्तरः 'हास्य-व्यंग्य' की दृष्टि से मंच आज सर्वाधिक त्रासद दौर से गुजर रहा है। चुटकुलों को 'हास्य-व्यंग्य' समझने वालों का मानना है कि मंच के 'माल' पर डकैती पड़ी है, उसी 'माल' से लोगों ने लाफ्टर शोरूम खोल लिए और हमारा 'माल', वहीं नई पैकिंग में बिक रहा है। आश्चर्य की बात यह है कि इस डकैती की रिपोर्ट किसी थाने में नहीं हुई।
प्रश्नः तो क्या आप चुटकुलों के विरोध में खड़े हैं?
उत्तरः सवाल ही नहीं उठता। यह चुटकुला नहीं, 'चोटकला' है। इस शब्द में 'कला' जुड़ा है। हास्य ही इसका मूल आधार होता है। सहज, सरल और संक्षिप्तता श्रेष्ठ चुटकुलों की पहचान है। बहुधा चुटकुले अलंकार युक्त होते हैं। उनमें वचन वैदग्घ्यता होती है। चुटकुलों के कहन व टाइमिंग का कमाल देखना हो तो शैलेष लोढ़ा और अरुण जैमिनी के नाम सम्मान से लिए जा सकते हैं। चुटकुलों का कविताई प्रयोग काका हाथरसी से लेकर डॉ. सुनील जोगी तक ने सफलता से किया है। लेकिन माफ करें साहब! लोकगीतों और मुहावरों की तरह यह सार्वजनिक सम्पत्ति है, इस पर किसी का कॉपीराइट नहीं है। लेकिन जो चुटकुलों को ही हास्य समझते हैं, मैं उनके विरोध में हूँ। आज चुटकुलों को चैनेलाइज करने का दौर है। लाफ्टर शो इसी की पैदाइश है।
प्रश्नः चुटकुलेबाजी कवि सम्मेलनों में भी तो होती है, वहां भी चैनेलाइजर्स हैं, फिर आप 'लाफ्टर शो' से 'हास्य कवि सम्मेलनों' को अलग करके कैसे देखते हैं? ये भी हंसा रहे हैं और वो भी हंसा रहे हैं। इनमें क्या अंतर है?
उत्तरः वही अंतर जो बूंद और सागर में है। कवि सम्मेलनों में चुटकुलों के अतिरिक्त कविता की शाश्वतता है, लोक कल्याण के साथ लोक रंजन है, शालीनता है, मर्यादा है, प्रतिष्ठा है, संयम है और शब्दों का संयत प्रकाशन है। एक गजब की क्रिएटिविटी है व हास्य के विधान और उसकी धाराओं का अनुसरण है। वहां इनमें से एक भी चीज ढूंढ़ो, तो जानें। हां, केवल पाँच प्रतिशत क्रिएटिविटी है, वो भी पाँच लोगों में। हां, उन्होंने हास्य में एक नया काम किया, सार्वजनिक मंचों पर कूल्हे मटकाने, माइक घुमाने, लेटने-बैठने से भी हास्य पैदा किया। सच तो यह है कि भारतीय 'मुद्रा' में इतना सामर्थ्य है, कि उसने भिन्न-भिन्न 'मुद्रा' में हास्य पैदा करवाया है।
प्रश्नः आप नई पीढ़ी के बारे में क्या सोचते हैं? उनके प्रति आश्वस्त नहीं हैं क्या?
उत्तरः नई पीढ़ी अपने बारे में खुद नहीं सोच रही, मैं क्या सोच सकता हूँ। मुझे कहने में कोई संकोच नहीं कि नई पीढ़ी गुटखे, सिगरेट, पैग वाली पीढ़ी बनती जा रही है। वो केवल 'चैम्पियनों', 'किंगों' और 'सम्राटों' के खिताबों में उलझी है, इन्हें 'किताबों' से मतलब नहीं है। नई पीढ़ी में ज्यादातर लोग उन संस्थानों के छात्र हैं, जिनके मुख्य द्वार पर लिखा होता है, 'मैट्रिक फेल सीधे बी.ए. करें।' नई पीढ़ी केवल चैनलों की चाल, 'तालियों की ताल व माल' को समझती है।
प्रश्नः और अन्त में एक प्रश्न, टी.वी. चैनलों पर इन दिनों हास्य कार्यक्रमों, प्रतियोगिताओं की भरमार है, इनका क्या भविष्य है?
उत्तरः ये हास्य के 'कार्यक्रम' नहीं, हास्य का 'क्रियाकर्म' है। इन कार्यक्रमों में जज वे होते हैं, जो कम्पलसरी रिटायर्ड हैं। इन कार्यक्रमों का सार यह है कि चैनलों के बाजारू महाभारत में निरीह चुटकुला चक्रव्यूह में फंस गया है, सारे महारथी दिन में दस बार नाच-नाच कर चुटकुलों का 'वध' करते हैं। ऐसा वध, जिसकी कोई हद नहीं है। इन कार्यक्रमों के प्रोड्यूसर्स वे जयद्रथ हैं, जिन्होंने हास्य-व्यंग्य के पाण्डवों को गेट पर ही रोक रखा है, ऐसे में चुटकुलों का वध तो होगा ही। मुझे इन कार्यक्रमों के भविष्य का तो पता नहीं, पर जयद्रथ के भविष्य को मैं जानता हूँ। लेकिन फिर भी ऐसे कार्यक्रमों का आधिक्य इस बात का प्रमाण तो है ही कि हास्य की जरूरत समाज को हमेशा रही है, रही थी और रहेगी।
(अट्टहास के जनवरी, 2009 अंक में प्रकाशित)