विद्वानों ने 'हास' को एक प्रीति परक भाव माना है। उनका मानना है कि यह चित्त की गंभीरता, जो पूर्व से संचित है, में आकस्मिक विस्फोट कर उसे कुछ क्षणों के लिए सात्विक प्रसन्नता से भर देता है। उनका यह भी मानना है कि यह भाव भी अन्य भावों की तरह चित्त में पहले से ही सोया पड़ा रहता है, शांत व अक्रिय होता है, किंतु अनुकूल परिस्थितियाँ प्राप्त होते ही सक्रिय हो उठता है।
डॉ. हरिराम आचार्य कहते हैं कि-
स्थायी भावो हासः पुष्टोहसितैः संचारिभावैश्च ।
विकृति, विभावसमुत्थः स्वाद्यतेस तन्मयैःरसिकैः ।।
अर्थात्, विकृति रूपी विभाव से उत्पन्न होने वाला 'हास' नामक स्थायी भाव 'हसित' नामक अनुभावों व संचारी भावों से पोषित होकर तन्मय रसिकों के द्वारा आनंद का विषय (हास्य रस) बनता है।
हास्य के उद्रेक में विकृति के साथ विचित्रता, कल्पना व बेतुकापन निहित है। विशेष रूप से मंच के हास्य कवियों के लिए आचार्य कहते हैं-
शब्द भावांग-भाषाश्च, स्थितिर्ध्वनिरनुकृतिः ।
इत्येषु विकृतिहास्यम् जनयेद हासयेद जनात् ।।
मंच पर हास्य कवि के प्रस्तुति करण के लिए विकृतियुक्त शब्द, आंगिक मुद्राएँ, भाषा, स्थिति, ध्वनि व अनुकरण (नकल-मिमिक्री) से हास्य उत्पन्न किया जाता है।
स्वयं भरतमुनि अपने नाट्यशास्त्र में हास्य रस के बारे में लिखते हैं-
विपरीतालंऽकारैः विकृतचाराभिधान वेषेश्च ।
विकृतैरर्थ विशेषर्हसतीत रस स्मृतो हास्यम् ।।
अर्थात्, विपरीत अलंकार विकृत आकार, विकृत वेश, विकृत आचार, विकृत अभिधान, विकृत अर्थ विशेष से हास्य उत्पन्न होता है।
मम्मट, धनंजय जैसे विद्वानों ने भी विकृत आकृति, वेशभूषा व विकृत वाणी को हास्य रस का जनक माना।
धनंजय लिखते हैं-
विकृताकृति वाग्विशेषैरात्मनोऽथ-परस्यवा ।
विकृत वेशभूषा, चेष्टा, शब्दावली, कार्य कलाप में विचित्रता अपनी भी हो सकती है और अन्य की भी। विद्वानों का यह मत हास्योद्रेक में नकल - अनुकरण (मिमिक्री) को भी महत्त्वपूर्ण व सम्मानित स्थान दिलाता है। अनुकरण के माध्यम से हास्य पैदा करने के लिए असाधारण सामर्थ्य की आवश्यता होती है। हास्य आध्यात्मिक दृष्टि से पूर्णतः परमात्मस्वरूप है। जिस प्रकार परमात्मा को कपट, छल, छिद्र नहीं भाते हैं, (मोहि कपट, छल, छिद्र न भावा) वैसे ही छली, कपटी व दंभी व्यक्ति से हास्य उतना ही दूर है, जितना पापी से परमात्मा।
हास्य रस का उद्रेक जिन संचारी भावों से होता है, वो हैं-
निश्छल-सरलोल्लास, नैसर्गोन्मुक्तता ध्रुवम् ।
हास्यानंदस्य निष्पत्तौ, भावाः संचारिणोमताः ।।
निश्छलता, सरलता, उल्लास, उन्मुक्तता हास्य के अन्तर में निहित है। इन संचारी भावों से युक्त हास्य दैवीय हास्य है व इनसे मुक्त हास्य दानवीय हास्य है।
महाकवि देव ने शृंगार को रसराज माना। इसके पीछे उनके अपने तर्क थे। शृंगार के समर्थकों का मत है कि शृंगार समस्त सजीव जगत में पाया जाता है, जबकि हास्य की पहुँच केवल मनुष्य मात्र में है। चलो, इससे यह तो सिद्ध हो ही जाता है कि जो हँसता है, वह ही मनुष्य है या केवल मनुष्य ही है, जो हँस सकता है अर्थात् मनुष्यता की पहचान है 'हास्य'। यह पूर्ण सत्य है कि 'हास्य' ही मानवता के विकास का पैमाना है। किन्तु हास्य प्रकृति के कण-कण में विद्यमान है और उसे देखने के लिए निर्मल मन और विशेष दृष्टि की आवश्यकता है। हास्य के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण में हंसी के साथ खुशी का संबंध माना गया है, इसीलिए प्रसन्नता-खुशी हँसने के मूल कारणों में मानी जाती है। हॉब्स कहते हैं- "हास्य अपनी अनुभूति से उद्भूत प्रसन्नता के प्रकाशन का नाम है।"
हम जानवरों में भी हास्य देख सकते हैं, जब वे अपनी आंगिक मुद्राओं, चेष्टाओं व क्रिया-कलापों से अपनी प्रसन्नता को प्रकट करते हैं। हरिण के बच्चे की कुलाँचे प्राकृतिक हास्य का जीवंत उदाहरण है। पत्थर अगर मूरत बनकर हँसता है तो सागर अपनी उत्ताल तरंगों से खिलखिलाता है। आकाश इंद्रधनुषी रंगों की फुहारों से अट्टहास करता है, तो शान्त पेड़-पौधों-फसलों से हवाएँ गले मिलकर हँसती देखी जा सकती हैं। सूर्य ऱश्मियों की काव्यमयी छेड़छाड़ से फूल खिलते हैं- हँसते हैं। पुष्पों का पल्लवन प्राकृतिक हास्य का मूर्त्त रूप है और ये सब प्राकृतिक हास्य की व्यञ्जना है। ईश्वर स्वयं एक हास्यकार है व उसकी सर्वश्रेष्ठ रचना है, 'हँसती हुई प्रकृति'।
इस सम्पूर्ण विश्व में हास्य जहाँ सर्वाधिक पुष्पित व पल्लवित हुआ है, वह स्थान है- भारत। जहाँ धार्मिक ग्रंथों में भी प्रचुर मात्रा में हास्य देखा जा सकता है। लक्ष्मण-परशुराम संवाद, विराट के राज-महल में द्रौपदी के रूप में भीम द्वारा कीचक का स्वागत करना आदि। संस्कृत साहित्य व लोकनाट्य व शास्त्रबद्ध नाट्य में भी तो हास्य के लिए विदूषक का पात्र रचा जाने लगा था। धर्मग्रंथों में हास्य रस का प्रयोग शायद ही अन्यत्र कहीं देखने को मिले। काव्य शास्त्र के विद्वानों ने, जिनमें भरत, मम्मट, विश्वनाथ व जगन्नाथ आदि ने भी हास्य रस का खूब प्रयोग किया है।
हिन्दी हास्य रस की कविता का प्रारंभ अमीर खुसरो ने किया। खुसरो का लक्ष्य जनता का मनोरंजन था। उन्होंने पहेलियों व कहमुकरियों का भी प्रयोग किया। हिन्दी मंच पर कुछ हास्य कवि हैं, जो प्रस्तुति से श्रेष्ठ हैं तो अपने लेखन से भी श्रेष्ठ हैं। हास्य कविता की सबसे बड़ी चुनौती है कि वह पढ़ने में भी उतना ही आनन्द प्रदान करे। ये मंचीय कवि न केवल सुनने में, बल्कि पढ़ने में भी उतना ही आनन्द प्रदान करते हैं। ये कवि केवल आनन्द तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि इन्होंने अपने लेखन में मनुष्य व मनुष्यता के प्रति सतत् चिन्ता व्यक्त करते हुए समूची मानव जाति के सजग प्रहरी की भूमिका अदा की है। ये न केवल हास्य के शास्त्रीय स्वरूप के अनुगामी हैं, बल्कि अमीर खुसरो की गौरवशाली परम्परा के ध्वज वाहक भी हैं।
श्री ओम प्रकाश 'आदित्य', अल्हड़ बीकानेरी व अशोक चक्रधर अपनी प्रस्तुति के अलावा शैली के नए प्रयोगों, भाषिक चटखारों व तार्किकता के लिए पठनीय हैं, तो सुरेन्द्र शर्मा, जैमिनी हरियाणवी व अरुण जैमिनी लोक जीवन की झाँकी, भाषायी फैंटेसी व एब्सर्डीफिकेशन (हँसी तो आजकल ऊटपटांग बातां पर ही आवऽऽ है) के लिए उल्लेखनीय कवि हैं। हास्योद्रेक की सरलता व सहजता देखनी हो तो महेन्द्र अजनबी, पद्मश्री डॉ. सुरेन्द्र दुबे, प्रवीण शुक्ल, वेद प्रकाश व प्रदीप चौबे पठनीय हैं-श्रवणीय हैं, जो सशक्त विपरीत तर्कों व विचित्र उक्तियों से रस लोड़ित करते हैं। विषय वस्तुगत, स्वतःस्फूर्त व ग्लोबल हास्य देखना हो तो माणिक वर्मा, आशकरण अटल, व सुरेन्द्र दुबे (जयपुर) को पढ़ना होगा। इसी कड़ी में घनश्याम अग्रवाल, डॉ. सुरेश अवस्थी, सर्वेश अस्थाना, तेजनारायण बेचैन, सम्पत सरल व मनोहर मनोज आदि का भी नाम लिया जा सकता है, जिनके हास्य की रीढ़ ही व्यंग्य है।