संजय झाला एक ऐसे बादल का नाम है, जिसका रचना संसार जेठ की दुपहरी में रेगिस्तान की तपती रेत पर इन्सान के शीश पर छाया करता है, तो कभी हास्य की फुहारों से नहलाकर उसे आनंदित करता है। यही नहीं, वो कभी अपने व्यंग्यों की चपला के आलोक से विसंगतियों को उजागर करता है, जो समाज में व्याप्त हैं। वह केवल उजागर ही नहीं करता, वरन् उनके व्यंग्य की बिजली विद्रूपताओं पर टूटकर गिराता ही है। संजय चाहे मंच पर हों, चाहे पत्र-पत्रिकाओं में या पुस्तकों के पृष्ठों पर, वह अपनी संवेदनशीलता से भरी-पूरी रचनाओं से सबका मन मोह लेते हैं, संक्षेप में कहूँ तो उनके बारे में यही कहा जा सकता है- उनके मन में बिजली की तड़प भी है, जो व्यंग्य बनकर सामने आती है। उनमें रसवंती फुहार भी है, जो हास्य बनकर बिखरती है। उनमें सम्पूर्ण व्यक्तित्व की वह शीतलता भी है, जो थके-हारे और धूप में जलते इन्सान को छाया देती चलती है। मेरा स्नेह और आशीष सदैव मेरे इस प्रिय रचनाकार के साथ है।
- डॉ. कुंअर बेचैन
Dr.Kunwar Bechain