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संजय झाला सधे हुए व्यंग्य के माध्यम से संस्कारों का संवर्द्धन करने वाला रचनाकार है। वह विकृतियों पर प्रहार करता हुआ गुदगुदाता है, तो सत्य, शिव और सुंदर के संरक्षण की दिशा में बहुत कुछ ज़रूरी सोचने पर विवश भी करता है। वह अच्छा रचनाकार तो है ही, संवेदनाओं के साथ जीने वाला बहुत अच्छा इन्सान भी है। इसीलिए उसे सुनकर, गुनना और उसकी संगत में रहकर ऐसा लगता है कि मानो घर की मुंडेर पर बैठे किसी पक्षी ने सुबह-सुबह चहचहाना शुरू कर दिया हो। इस चहचहाहट को सुनकर कौन होगा, जिसके मन में जागरण प्रफुल्लता बन नहीं जागेगा।
- अतुल कनक
Atul Kanak