व्यंग्य के विषय में मैं धीरे-धीरे इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि व्यंग्य एक 'शैली' भी हो सकती है, व्यंग्य एक 'विधा' भी हो सकती है, इस पर विभिन्न मत व तर्क भी हो सकते हैं, किंतु व्यंग्य एक 'विचार' है, एक 'विचारधारा' है व एक 'दृष्टिकोण है', इस पर विभिन्न मतों व तर्कों की कोई संभावना नहीं है।
विचार-विचारधारा-दृष्टिकोण, व्यक्ति को रुचि-अरुचि, उसकी स्वीकार्यता-अस्वीकार्यता, उसकी वृत्ति-प्रवृत्ति, भाव व स्वभाव से समय के साथ उसके अनुभव व चिंतन-मनन से न केवल जन्म लेती है, अपितु परिष्कृत भी होती है।
मेरे व्यंग्य लिखने का कारण इससे स्पष्ट हो जाता है। यह सत्य है कि लेखन एक गंभीर व कठिनकर्म है और व्यंग्य लेखन तो और भी कठिन व गंभीर है, क्योंकि किसी भी विधा के लेखक की अपेक्षा व्यंग्यकार के गहरे सामाजिक सरोकार हैं व दायित्व हैं। इन दायित्वों से विमुख होना ही व्यंग्यकार की मृत्यु है।
यह भी सार्वभौमिक सत्य है कि व्यंग्य, साहित्य की किसी भी विधा में किया-लिखा जा सकता है। चाहे वह कहानी, गीत, नाटक, ग़ज़ल, संस्मरण व निबंध जो भी हो, क्योंकि व्यंग्य की दृष्टि विराट व व्यापक है व उसकी मारक क्षमता व पहुंच दूर तक है। इससे पुनः यह सिद्ध होता है कि व्यंग्य एक 'विचार' है, 'दृष्टिकोण' है।
सही अर्थों में व्यंग्य 'सहस्त्राक्ष', 'सहस्त्रकर्ण' व 'सहस्त्रानन' है, इसके पास विसंगति को देखने, सुनने व बोलने के लिए हज़ार-हज़ार आँखें, नाक व मुख हैं। व्यंग्य नव रसों को कसने वाली रज्जू है, जिसको ढीला छोड़ने का परिणाम, विनाश व ध्वंस है। व्यंग्य भगवान शिव की तरह है, ध्वंसक, मारक व प्रहारक.. किंतु यह ध्वंस और प्रहार कल्याण की भावना को समेटे हुए है।
ध्यान से देखें तो बंधन के अंतर में स्वतंत्रता, मृत्यु में मोक्ष व विनाश में विकास व युद्ध में शांति निहित है, ठीक वैसे ही व्यंग्य में कल्याण की भावना निहित है।
भगवान कृष्ण जानते थे कि महाभारत में ही भारत की शांति निहित है। उन्होंने शांति के लिए ही अर्जुन को 'बाण' चलाने के लिए कहा था। यही 'बाण' आज के परिप्रेक्ष्य में 'व्यंग्यबाण' के रूप में समाज की इस रणभूमि में, विसंगति, कुसंगतियों, असंगतियों का विनाश कर रहा है।
यदि समय-समय पर ईश्वर का अवतरण, साधुओं के परित्राण के लिए, दुष्कृतों के विनाश के लिए और धर्म की स्थापना के लिए हुआ है, तो व्यंग्य सृजन के भी यही मूल कारण हैं।
हमारे कुछ मित्र बहुधा मुझसे कहते हैं कि तुम्हारे व्यंग्य लिखने से कौनसा राम-राज आएगा, कौनसी क्रांति आएगी, कौन सुधरेगा, इस व्यंग्य से क्या होने वाला है, गैंडों को गुलगुली करने से क्या होगा? क्यों लिखते हो ये व्यंग्य-फंग। मैं उनसे पूछता हूँ इन चैनल वाले धर्म धारकों ने कौनसे धर्म की स्थापना कर दी, कितने लोगों को सुधार दिया, सन्मार्ग पर चलाया, पाखंड को समाप्त किया, तो क्या इन्हें कथा, भागवत, प्रवचन, उपदेश बंद कर देने चाहिए। इनके धर्मोपदेश समाज को सुधारे या नहीं सुधारे, पर धर्म परायण लोगों को, धर्मानुसरण के लिए बल प्रदान अवश्य करते हैं। यह सत्य है।
पुलिस के होते हुए भी शहर में अपराध होते हैं, फिर पुलिस का क्या काम है? केवल अपराध रोकना ही पुलिस का काम नहीं है, वह सत्य की रक्षा भी करती है। अपराध रुके या न रुके, किंतु यह पुलिस ही है, जिसके डर से आदमी अपराध नहीं करता है और अपराध करता है तो भयभीत रहता है। पुलिस जहाँ खल का निग्रह करती है, वहीं सद् का संरक्षण भी करती है। यह भी सत्य है।
उसी तरह सार्थक व्यंग्य से समाज में कोई सुधरे या न सुधरे, किंतु समाज के चँद लोग, जो सदा से नीति-नियम-न्याय और नैतिकता के मार्ग पर चल रहे हैं, इन्हें नैतिक बल, समर्थन व संरक्षण अवश्य देते हैं और कहते हैं, मित्र ! हम खंडाला नहीं जाएंगे, जहाँ केवल खाया, पीया जाता है और ऐश की जाती है, हम तो त्रयम्बकेश्वर ही जाएंगे, जहाँ विष पीना व विष को पचाना सिखाया जाता है।